रामचरित मानस के ‘सुंदरकांड’ में एक वर्णन है.. विभीषण, श्रीराम को प्रणाम करते हैं और आशीर्वाद स्वरूप उनकी भक्ति मांगते हैं। कहते हैं मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस ऐसा करें कि जीवनपर्यंत आपको इष्ट मानूं।
राम बदले में देखिए क्या देते हैं-
‘जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।’
अर्थात्, हे मित्र, यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत में मेरा दर्शन अमोघ है। वह कभी निष्फल नहीं जाता। ऐसा कहते हुए श्रीराम जी ने उनका राजतिलक कर दिया और आकाश से पुष्पों की वर्षा आरंभ हो गई।
श्री राम ने विभीषण को लंका का राज ही दे दिया। राम की भक्ति में कितनी शक्ति है। एक नगर निष्काषित व्यक्ति को उसी नगर का स्वामित्व मिल गया। एक संकोच में दया मांगते व्यक्ति को राजपाट मिल गया। तुलसी जैसे अनाथ को इतना यश मिल गया कि उनके समकक्ष आज भी कोई नहीं।
ठीक ही कहा है जो राम का है, यह सब उसका है…. जो राम का नहीं, वो किसी काम का नहीं। उसके लिए कोई सुख नहीं, कोई शांति नहीं।” ईश्वर के शरणागत होकर हम वो सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसके योग्य हम स्वयं को भी नहीं समझते।
शरणागति का यह मार्ग अत्यंत सहज है। रावण ने कठोर तपस्या की। अपना शीश काटकर शिव के चरणों में डालता गया। कई वर्षों के कठोर तप के बाद कर्पूरगौर करुणावतार महादेव प्रसन्न हुए और उसे स्वर्णमयी लंका का राज्य मिला।
पर विभीषण को वह कठोर तपस्या नहीं करनी पड़ी… उन्होंने केवल करूणानिधि प्रभु श्री राम से उनकी शरणागति माँगी और शरणागत वत्सल भगवान ने शरणागति के साथ साथ स्वर्णमयी लंका का राज्य भी दे दिया।
इसी प्रसंग को रामचरित मानस में कुछ इस तरह से व्यक्त किया गया है…
जो संपति सिर रावनहि दीन्हि दिए दस माथ।
सोच संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।
अर्थात रावण ने अपने दस सिर कटाकर जो संपत्ति अर्जित की थी, वही श्रीराम ने बहुत सकुचाते हुए विभीषण को सौंप दी। शरणागत के प्रति ईश्वर भी कृतज्ञ होते हैं… कुछ देते हुए भी उनमें संकोच होता है कि यह पर्याप्त नहीं।
ईश्वर में अटूट विश्वास और उसकी शरणागति… इसके बाद संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता।