दिल्ली में इस साल के शुरू में हुआ दंगा देश में अपनी तरह का पहला है। ऊपर से दिखने में यह भी किसी आम हिंदू-मुस्लिम दंगे जैसा ही लगता है। लेकिन दिल्ली के दंगों में एक तीसरा पक्ष भी शामिल था, जिसे जानना और उसके उद्देश्य को समझना बहुत जरूरी है। ये तीसरा पक्ष है अर्बन नक्सल यानी शहरी नक्सलियों का। आम तौर पर सांप्रदायिक दंगों के पीछे कोई स्थानीय कारण जिम्मेदार होता है। जो षड़यंत्र होते हैं वो भी बहुत तात्कालिक होते हैं। लेकिन यह पहला दंगा था जिसमें कोई स्थानीय कारण नहीं था। अगर नागरिकता कानून को कारण मान भी लें तो जहां दंगे हो रहे थे और जो दंगाई पकड़े गए हैं उनमें से किसी की भी नागरिकता संकट में नहीं थी। नागरिकता कानून बहाना जरूर था, लेकिन निशाना कुछ और था।
बड़े आंदोलन लायक़ नहीं बचे नक्सली
शहरी नक्सलियों की खूबी होती है कि वो डफली वग़ैरह बजाकर प्रदर्शन जैसा माहौल बना सकते हैं। लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच सकते हैं, लेकिन व्यापक जनसमर्थन न होने के कारण वो कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते। हालांकि किसी भी षड्यंत्र की प्लानिंग और उसके आधार पर एक छद्म माहौल बनाने में उनका कोई तोड़ नहीं होता। उन्हें हमेशा कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता होती है जिन्हें मोहरा बनाया जा सके। दिल्ली के मामले में मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग इसके लिए ख़ुशी-खुशी तैयार हो गया। बिना यह सोचे कि मुद्दा क्या है और क्या इससे उनकी ज़िंदगी पर कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है। इस तरह एक गठजोड़ बन गया जो नागरिकता क़ानून के नाम पर न सिर्फ़ मज़हबी नारे लगा रहा था बल्कि देश तोड़ने की बातें भी बड़े सहज रूप से बोली जा रही थीं। शहरी नक्सली और इस्लामी कट्टरपंथी, दोनों को ही अब तक अलग-अलग तरह से सत्ता का अनैतिक प्रश्रय मिलता रहा था। लेकिन बीते कुछ साल से यह बंद हो जाने का मलाल दोनों को ही है। ऐसे में कुछ राजनीतिक दल भी स्वाभाविक रूप से उनके साझीदार बन गए।
मुसलमानों के भड़काने की रणनीति
अगर आप 14 दिसंबर को रामलीला मैदान में सोनिया गांधी और अगले दिन शाहीन बाग में आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्ला खान के भाषणों को सुनें तो दोनों में कमाल की समानता पाएंगे। ऐसा लगता है मानो दोनों स्क्रिप्ट किसी एक ही व्यक्ति ने लिखी हैं। सोनिया गांधी ने रैली के मंच से अपील की कि लोग देश की संसद में पास नागरिकता क़ानून के विरोध में सड़कों पर उतरें। एक दिन बाद उसी बात को अमानतुल्लाह खान ने अपने तरीक़े से कहा। उसने बस यह विस्तार दे दिया कि “अगर सड़कों पर नहीं उतरे तो मस्जिदों से अजान नहीं होगी। मुसलमान औरतों को बुर्का पहनने पर रोक लग जाएगी” इत्यादि इत्यादि। पिछले कुछ समय से अर्बन नक्सली देशभर में अपनी छोटी-छोटी सभाओं और सेमिनार में या मीडिया के माध्यम से यही माहौल बनाने में जुटे थे। ऐसे ही भाषणों का नतीजा 15 दिसंबर की हिंसा के रूप में सामने आया। उसके बाद शाहीन बाग़ का चक्का जाम और उसके बाद दिल्ली में दंगे इसी सोच से संचालित थे।
पूरी तरह पूर्वनियोजित था दिल्ली दंगा
दिल्ली दंगों को लेकर पुलिस के आरोपपत्रों और निष्पक्ष संस्थाओं की रिपोर्टों पर नजर डालें तो यह समझ में आता है कि इन दंगों की एक-एक घटना और हर किरदार पहले से तय था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की यात्रा उनके लिए एक अवसर था। जब ‘कुछ बड़ा’ करके दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा जा सकता था। योजना अर्बन नक्सलियों ने बनाई और उस पर अमल की जिम्मेदारी कट्टरपंथियों को दी गई। इस काम के लिए देसी-विदेशी मीडिया से लेकर तमाम उन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भी इस्तेमाल किया गया, जो वामपंथी नेटवर्क का हिस्सा मानी जाती हैं। ग्रुप ऑफ इंटलेक्चुअल्स एंड एकेडमीशियन (GIA) ने दंगों की इसी प्लानिंग पर एक विस्तृत रिपोर्ट दी है। जिसमें साफ कहा गया है कि वामपंथी और जिहादी गठजोड़ ने मिलकर इसे अंजाम दिया। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली के बाद पूरे देश को इसी तर्ज पर दंगों में झुलसाने की तैयारी थी। यही कारण है कि रिपोर्ट में दंगों के पीछे के असली चेहरों को पकड़ने के लिए एनआईए से जांच कराने की सिफारिश की है। क्योंकि उन्हें पुलिस की सामान्य कानूनी प्रक्रिया से पकड़ पाना बहुत कठिन है।
भारत के 17 टुकड़े करने का अधूरा सपना
अब समझते हैं कि देश की एकता और अखंडता को तोड़ने वाली इस मानसिकता की जड़ें कहां है। 1940 में जब जिन्ना ने अलग पाकिस्तान मांगा था तो सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उसका समर्थन किया था। इसके कुछ साल बाद जब कैबिनेट मिशन आया तब कम्युनिस्टों ने उससे भारत को कुल 17 टुकड़ों में बांटने की मांग की थी। यही कारण था कि राम मनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुनाहगार’ में लिखा है कि “वामपंथी जब सत्ता में नहीं होते तो राष्ट्रवाद को दुश्मन मानते हैं। उसे कमज़ोर बनाने के लिए बंटवारे की नीति को बढ़ावा देते हैं। वामपंथ ने हमेशा भारत को कमज़ोर बनाया है, फिर भी वामपंथी अपने सपने को पूरा करने की आशा में अब तक अंधे हैं।”
फ़िलहाल वही नक्सली-जिहादी गठजोड़ अब दिल्ली दंगों पर चल रही क़ानूनी कार्रवाई को हिंदू-मुस्लिम रंग देने में जुटा है। ताकि पुलिस की पूरी जाँच को संदिग्ध ठहरा दिया जाए। जनता को इससे सतर्क रहना होगा। साथ ही यह याद रखना होगा कि शहरी नक्सलियों की योजना हिंदू-मुस्लिम तक ही सीमित नहीं है। वो समाज की कई और दरारों को चौड़ा करने में दिन-रात जुटे हैं। अगड़ा-पिछड़ा, अमीर-गरीब, मालिक-मजदूर, काला-गोरा, स्त्री-पुरुष जैसी ढेरों दरारें उन्होंने खोज रखी हैं। दिल्ली का प्रयोग भले ही बहुत सफल नहीं रहा हो, लेकिन वो हार नहीं मानेंगे और निश्चित रूप से कोशिश जारी रखेंगे।
(आशीष कुमार का लेख)