ऐसा लग रहा है कि देश में सिर्फ मजदूर ही रहते हैं। बाकी सब लंगड़-फंगड़ हैं? अब मजदूरों का रोना-धोना बंद कर दीजिये। मजदूर घर पहुंच गया तो उसके परिवार के पास मनरेगा का जॉब कार्ड, राशन कार्ड होगा। सरकार मुफ्त में चावल और आटा दे रही है। जनधन खाते होंगे तो मुफ्त में 3000 रु. भी मिल गए होंगे और आगे भी मिलते रहेंगे। बहुत हो गया मजदूर-मजदूर। अब जरा उसके बारे में सोचिए, जिसने लाखों रुपये का कर्ज लेकर प्राइवेट कॉलेज से इंजीनियरिंग किया था और अभी कंपनी में 5 से 8 हजार की नौकरी मिली थी। मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी से भी कम, लेकिन वो मजबूरी में अमीरों की तरह रहता था।
जिसने अभी-अभी नई-नई वकालत शुरू की थी। दो-चार साल तक वैसे भी कोई केस नहीं मिलता। दो-चार साल के बाद चार-पांच हजार रुपये महीना मिलना शुरू होता है। वो भी मजबूरी में ही सही अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं कर पाता और चार-छह साल के बाद जब थोड़ा कमाई बढ़ती है, 10-15 हजार होती हैं तो भी लोन-वोन लेकर कार-वार खरीदने की मजबूरी आ जाती है। बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो होती है। अब कार की किस्त भी तो भरनी है?
उसके बारे में भी सोचिए जो सेल्समैन, एरिया मैनेजर का छज्ज पीछे बांधे घूमता था। बंदे को भले ही आठ हज़ार रुपए महीना मिले, लेकिन कभी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं किया। उनके बारे में भी सोचिए जो बीमा एजेंट, सेल्स एजेंट बने मुस्कुराते हुए घूमते थे। आप कार की एजेंसी पहुंचे नहीं कि कार के लोन दिलाने से लेकर कार की डिलीवरी दिलाने तक के लिए मुस्कुराते हुए, साफ सुथरे कपड़े में, आपके सामने हाजिर। बदले में कोई कुछ हजार रुपये! लेकिन वो भी अपनी गरीबी का रोना नहीं रोते हैं। आत्मसम्मान के साथ रहते हैं।
मैंने संघर्ष करते वकील, इंजीनियर, पत्रकार (अच्छे वाले ईमानदार पत्रकार, ब्लैकमेलर नहीं), एजेंट, सेल्समेन, छोटे-मंझोले दुकान वाले, क्लर्क, बाबू, स्कूल के सर जो अभी सितंबर में एडहॉक पर लगे थे, धोबी, सैलून वाले आदि देखे हैं। अंदर भले ही चड़ढी-बनियान फटी हो मगर अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं करते हैं। और इनके पास न तो मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है, न ही जनधन का खाता, यहाँ तक कि कुछ तो गैस की सब्सिडी भी छोड़ चुके हैं। ऊपर से मोटर साइकिल की किस्त, या कार की किस्त ब्याज सहित देना है।
बेटी-बेटा की एक माह की फीस बिना स्कूल भेजे ही इतनी देना है, जितने में दो लोगों का परिवार आराम से एक महीने खा सकता है। परंतु गरीबी का प्रदर्शन न करने की उसकी आदत ने उसे सरकारी स्कूल से लेकर सरकारी अस्पताल तक से दूर कर दिया है। ऐसे ही टाइपिस्ट, स्टेनो, रिसेप्सनिस्ट, ऑफिस बॉय जैसे लोगों का वर्ग है। अब ये सारे लोग क्या करेंगे? वो तो…फेसबुक पर बैठ कर अपना दर्द भी नहीं लिख सकते। बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो है। तो मजदूर की त्रासदी का विषय मुकाम पा गया है। क्या सच्चाई पता है आपको? मजदूरों की पीड़ा का नाम देकर ही वो अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहा है? IAS, PCS का सपना लेकर रात-रात भर जागकर पढ़ने वाला छात्र आपकी गली का भला सा लड़का… पिन्टू…. अपना संजू… अपना गोलू… अपना चीकू…. तो बहुत पहले ही दिल्ली या चंडीगढ़ से पैदल निकल लिया था। अपनी पहचान छिपाते हुए। मजदूरों के वेश में। क्योंकि वो अपनी गरीबी और मजबूरी की दुकान नहीं सजाता। काश! देश का मध्यम वर्ग ऐसा कर पाता।
(राजीव महाजन की फ़ेसबुक वॉल से साभार)
मज़दूरों की लूटपाट के कुछ वायरल वीडियो देखिए: