सन 2004 में नेवी ने मेरा ट्रांसफर पोर्ट ब्लेयर में कर दिया, मुम्बई की चकाचौंध से वहां पहुंचने के बाद पता चला कि मैं तो जंगल मे पहुँच गया। लोग 9 बजे से पहले सो जाते थे, दुकानें 9 बजे तक बंद और साढ़े 9 तक चारों ओर सन्नाटा। मोबाइल कंपनी के नाम पर वहां सिर्फ बीएसएनल की ही सेवा है। दूसरी कोई कंपनी तब तक वहां नही पहुंची थी। दूसरी तकलीफ ये कि BSNL का सिम मिलना एक महाभारत था, एक लड़ाई था, ब्लैक में एक अदद सिम कहीं से जुगाड़ने के लिए डेढ़ से दो हज़ार खर्चना पड़ता था, वो भी एक से दो महीने वेटिंग के बाद बड़ी मुश्किल से मिलता था। मैंने भी जुगाड़ लगाया और 2000 खर्च करने के बाद भी 3 महीने बाद सिम हाथ लग गया। बीएसएनएल के नेटवर्क की हालत तो पूछिए मत, हमारा इन-लिविंग ब्लॉक बिल्कुल खुले एरिया में था, उसके बावजूद बात करने के लिए बाहर आ कर बात करना पड़ता था। रूम के अंदर नेटवर्क न के बराबर।
आप लोगों को लग रहा होगा कि सिम की किल्लत रही होगी, जिसकी वजह से ब्लैक होता होगा। लेकिन सच ये है कि सिम का स्टॉक आते ही BSNL के कर्मचारी उसे अंडरग्राउंड कर देते थे। वो उन्हें ब्लैक में ही बेचना पसंद करते थे। हर एक सिम पर आखिर 2000 की ऊपरी कमाई किसे बुरी लगती है। ये तब की बात है जब मेरी सैलरी कुछ 14000 महीना बनती थी, वो भी अंडमान का अलाउंस मिलाने के बाद। BSNL और उसके निकम्मे कर्मचारियों के लिए सब अच्छा चल रहा था, मलाई कट रही थी, लेकिन हर बुराई की तरह इसका अंत भी तो होता ही था। 2005 का साल BSNL के लिए बुरा समय लेकर आया, पोर्ट ब्लेयर में एयरटेल धूम-धड़ाके के साथ लॉन्च हो गया और आते ही पूरे अंडमान में छा गया। क्या जबरदस्त सर्विस और BSNL से सस्ती कॉल रेट (लॉन्च ऑफर में सस्ता था)। सबसे बड़ी बात, तुरंत से भी पहले सिम की अवेलेबिलिटी। ना नेटवर्क का प्रॉब्लम ना ही कोई तकलीफ। कोई समस्या होने पर सिर्फ फोन कर दीजिए और प्रॉब्लम सॉर्ट आउट। नेटवर्क का इशू है फोन कीजिए, हफ्ते भर के अंदर नेटवर्क अच्छा मिलने लगेगा। देखते ही देखते सड़कों पर बीएसएनल के टूटे-फूटे सिम दिखने लगे और एयरटेल ने पूरा मार्केट पकड़ लिया। यह भी पढ़िए: जानिए एअर इंडिया का बिकना देश के लिए अच्छा है या बुरा
इतना सब होने के बाद भी BSNL वालों की अकड़ नही गई। गिनती के बचे कस्टमर में से अगर कोई कंप्लेन ले के जाता था, तो ऑफिस में कर्मचारियों का रवैया कुछ ऐसा होता था कि कस्टमर ने उनका कर्ज़ा खा रखा है। सीधे मुंह बात तक न करते थे। मैं खुद भुक्तभोगी रहा, क्योंकि 2000 रुपये में खरीदा गया सिम तोड़ के फेंका नही गया। हिम्मत नहीं हुई। हालांकि बाद में फेडअप हो के सीने पर पत्थर रख के फेंकना ही पड़ा। एयरटेल की मार से BSNL अभी उभर भी न पाया था कि कोढ़ में खाज हो गया। पोर्ट ब्लेयर में रिलायंस का कर लो दुनिया मुट्ठी में, लॉन्च हो गया। लड़ाई अब सिर्फ एयरटेल और रिलायंस में थी। BSNL को कुतिया न पूछती थी वहाँ, लेकिन BSNL के ऑफिस के अंदर उन कर्मचारियों के माथे पर शिकन न थी। न के बराबर बचे कस्टमर से उनका घिनौना व्यवहार आज भी जारी था और 2006 के आखिर तक, जब मैं पोर्ट ब्लेयर से ट्रांसफर हो के निकला, न तो BSNL के सर्विस में और ना ही उन कर्मचारियों में कोई बदलाव आया। वो दोनों निकम्मे ही रहे।
बजट 2020 आने के बाद देख रहा हूँ कि कुछ लोग BSNL के लिए ज़ार-ज़ार रो रहे हैं। हाय मोदी ने बेच दिया, हाय भाजपा ने बेच दिया। मुझसे पूछो तो BSNL को ना तो मोदी ने बेचा और ना ही भजपा ने बेचा। BSNL अगर बिकता है तो उसे नीलाम करने वाले सिर्फ और सिर्फ BSNL के वो नाकारा बेकार और निकम्मे कर्मचारी और अधिकारी होंगे। और हाँ, BSNL को बिक ही जाना चाहिए, क्योंकि ये जितने दिन रहेगा, टैक्सपेयर जनता के ऊपर बोझ बन कर ही रहेगा। इतना सब होने के बाद भी मेरे पास BSNL के दो सिम हैं, दोनों एक्टिव हैं। काश BSNL के निकम्मे कर्मचारी कभी अपने लॉयल कस्टमर को समझ पाते।
लालमणि शर्मा के फ़ेसबुक पेज से साभार