प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में जाकर न्यूक्लियर सप्लायर देशों के क्लब में भारत की दावेदारी पेश कर रहे हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि आजादी के वक्त ही भारत को इस क्लब में शामिल होने का ऑफर मिला था। तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तब ये ऑफर ठुकरा दिया था। नेहरू की उस गलती का खामियाजा आजतक देश उठा रहा है और आजादी के 70 साल बाद देश के प्रधानमंत्री को दुनिया भर में घूमकर इसके लिए लॉबिंग करनी पड़ रही है। पूर्व विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा ने अपनी किताब में इस बात का जिक्र किया है।
देश पर भारी पड़ी नेहरू की गलती
किताब के मुताबिक अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने नेहरू को कहा था कि वो न्यूक्लियर सप्लायर देशों के क्लब में शामिल हो जाएं और शांतिपूर्ण कामों के लिए एटमी टेक्नोलॉजी के विकास को बढ़ावा दें। लेकिन नेहरू को यह बात समझ में ही नहीं आई। इस ऑफर के कुछ साल बाद 1964 में चीन ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया। लेकिन तब तक गाड़ी छूट चुकी थी। इसी गलती का नतीजा था कि दुनिया में बरसों तक भारत की इमेज एक गरीब और बेचारे देश की थी।
एक चूक से दुनिया में पिछड़ा भारत
रसगोत्रा की किताब ‘ए लाइफ इन डिप्लोमेसी’ में दावा किया गया है कि अगर नेहरू ने तब अमेरिका का ऑफर मान लिया होता तो भारत तभी दुनिया के सबसे ताकतवर देशों की लीग में शामिल हो गया होता। अगर ऐसा हुआ होता तो 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमले की हिम्मत नहीं की होती।
‘नेहरू को पिछलग्गू बनना पसंद था’
चीन में वामपंथियों का राज होने की वजह से अमेरिका उसे न तो सुरक्षा परिषद और न ही एनएसजी में रखना चाहता था। इसलिए उसने लोकतांत्रिक देश भारत को इन दोनों संस्थाओं में सीट का प्रस्ताव दिया। लेकिन नेहरू की नीति रूस और चीन का पिछलग्गू बने रहने की थी। नेहरू की इस ऐतिहासिक भूल का नतीजा है कि दुनिया की ताकत बनने की रेस में आज भारत चीन जैसे देशों से कई दशक पिछड़ चुका है।
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